आधी सूखी रोटी पे था नमक भी कम पड़ रहा माँ ने पूछा लाल से कौन है ये रच रहा? पेट की न आग बुझी प्यास भी अब जल गयी होती क्षुधा शांत मेरी ख्वाब बनकर रह गयी. देखा था कल फ़ेंक रहा था, छत की मुंडेर से जूठन कोई, सोच रहा था मैं, मुझे दे देता वाही जूठन कोई. आगे बढ़ा जब हारकर तो कुतिया भी चट कर गयी होती क्षुधा शांत मेरी ख्वाब बन कर रह गयी माँ बता दे, ये दुनिया अब लगती मुझे अजीब है कुत्ते से भी बद जाएँ अगर तो हम कौन से जीव हैं ? माँ, बोली इस तरह कि गम हो गया था गुम कहीं सूख गया नैनों से नीर खो गई ममता कहीं बेटा जीकर भी निष्प्राण हैं, निर्जीव हैं पाप है ये ख्वाब देखना क्योंकि हम गरीब हैं माँ उठी अनमनी सी
( लेख व कविताएँ )